Dream
प्र कृति ने अपने पूरे इतिहास में इतनी तेजी से मानवता के मूल्यों का ह्रास होता नहीं देखा जितना अब देख पा रही है, जिस समय में हम सभी जी रहे हैं । कुछ ज़माने पहले की बात करें तो हमारे घर बड़े होते थे, उनमें खुले आँगन होते थे, तुलसी नीम इत्यादि से हमारे पूर्वज उन घरों का शृङ्गार करते थे । वे घर बड़े थे क्योंकि उनमें बड़े लोग रहते थे – जो मात्र उम्र से ही नहीं, विवेक से, हृदय से भी विशालता को धारण करते थे, जो उन्हें वैज्ञानिक एवं आर्थिक संसाधनों के अभाव में भी स्वाभिमान और स्वतंत्रता के साथ जीने का बल दे देती थी।
हाँ, फिर परेशानी शुरु हुई । एक गहरा जाल रचा गया भारतीय पारिवारिक मूल्यों को जड़ से उखाड़ फेंक देने का । कारण? विदेशी लोग हमारी जमीनों पर तो कब्ज़ा बहुत पहले से करते आये थे पर अब तक किसी ने हमारे ज़मीर पर राज करने में सफलता हासिल नहीं की थी । जमाना अँग्रेजों के राज का था और अँग्रेजों को अपना राज्य अनंत करना था । सो उन्हें यही तरकीब सूझी :
“… We must at present do our best to form a class who may be interpreters between us and the millions whom we govern - a class of persons Indian in blood and colour, but English in tastes, in opinions, in morals and in intellect.”
- Excerpt from the Minute by T. B. Macaulay, February 2nd, 1835
हमारी मौलिकता की जड़ें हमारी संस्कृति में, अध्यात्म में तथा पूर्वजों की संतति से चले आये प्रौढ़ जीवन-विज्ञान में हुआ करती थीं । अँग्रेजों ने उसको ही अपना शिकार बनाया । उन्होंने हमें इस धोखे में डाला की विदेशी उच्च है, अँग्रेजी भाषा बुद्धिमानों की जागीर है और जो कुछ भी भारतीय है, वह सब तुच्छ है, हिंदी अनपढ़ों की भाषा है ।
भोले भारतीय झूठ से बुने इस जाल में ऐसे फँसे कि वे अपना आत्म-सम्मान खो बैठे और सचमुच, जो देश विश्व-गुरु था उसने अँग्रेजियत के आगे घुटने टेक दिये । परिणाम?
आज हमारे बड़े घर छोटे घोंसलों में तबदील हो गए हैं और हम इतने बौने हो गए हैं कि हमारे घरों में वृद्धों के लिए जगह एवं उनका सम्मान नहीं रहा । गरीबी हमें यहाँ तक निगल गयी है कि हम “अतिथि देवो भव” तो दूर, अतिथियों के आगमन की सूचना तक वहन नहीं कर सकते । हमारी बुद्धिमत्ता सिर्फ अँग्रेजी के चंद अक्षरों को बोलने-सुनने-पढ़ने तक सीमित है और हिंदी माध्यम के स्कूल में जाना हमारे पिछड़े एवं गरीब होने का सूचक है और हमारा आत्मसम्मान किसी बड़ी नौकरी की तलाश में बढ़ा नौकर बन जाने पर प्रतिष्ठा पा जाता है । हमारे जीवन का मूल्य आप कुछ लाख रुपयों के सालाना पैकेज पर लगा सकते हैं और हमारी नैतिकताएं किसी भी समय यश और धन के प्रलोभन पर बिकने को तैयार रहती हैं । और आज इसी सब के साथ हम अपने बच्चे के उज्जवल भविष्य को देख रहे हैं कि उसके पास भी कोई अच्छी नौकरी और एक फ्लैट हो । और हमारी आज की शिक्षा-प्रणाली भी रात-दिन अँग्रेजों की इसी त्रासदी को फैलाने लगी है ।
अँग्रेजों द्वारा भारत में बहुत समय तक शिक्षा के लिए कुछ नहीं किया गया, जिससे भारतवासी बहुत पिछड़ गए । और फिर अँग्रेजों को जब प्रथमतः शिक्षा का विकल्प सूझा तो वह भी इसलिए ताकि भारतवासियों में ईसाइयत का प्रचार-प्रसार हो सके और भारत में मिशनरी विद्यालय खोले जाने लगे । तब प्रश्न ये था कि भारतवासियों को फारसी में, संस्कृत में या अँग्रेजी में – किस भाषा में पढ़ाया जाये ? और कूटनीति के तहत हिंदी भाषियों के ऊपर एक विदेशी भाषा लाद दी गयी ।
आप जब किसी से उसकी मातृभाषा छीन लेते हैं तो आप उन्हें अपंग बना देते हैं ।
अब भारतवासी जो अँग्रेजी सीख गए थे , वे अपने ही पिता-भाई-मित्रों को - जिन्हें अँग्रेजी नहीं आती थी - तुच्छ समझने लगे, जो कि आज भी परंपरागत तरीके से चला आ रहा है । और अँग्रेज इन अँग्रेजी जुबान वालों को नौकरी भी दे देते थे जिससे इनका सामाजिक ओहदा और बढ़ जाता और सहज ही सब अँग्रेजी को सीखना अपने जीवन का ध्येय बना बैठे ।
अब हम ये भी समझें कि अँग्रेजों की यह शिक्षा प्रणाली कहां से आई?
बात कोई सौ साल पुरानी है जब विश्व में छद्म आधुनिकता ने प्रवेश किया । वह Industrial Age थी । फैक्ट्री में काम करने के लिए प्रशिक्षित नौकरों की आवश्यकता थी और लालची उद्योगपति ऐसे कर्मचारियों की तलाश में थे जो:
१. तेजी से उत्पादन कर सकें
२. गुलामों की भाँति पराधीन, विवश व आज्ञाकारी हों
३. ज्यादा प्रश्न न करें
इन कर्मचारियों को प्रोत्साहित करने के लिए उन्हें टारगेट दिए जाते और समय से पूर्व जो करे, उसे इनाम भी मिलता । इन्हीं संस्कारों को डालने के लिए शिक्षा प्रणाली रची गयी ताकि आज के बालक भविष्य के अच्छे कर्मचारी बन सकें ।
विज्ञान और तकनीकी इन सौ वर्षों में बहुत बदली पर शिक्षा प्रणाली अभी तक वही है जो हमें एक अच्छा गुलाम बनाती है - यह इस विज्ञ मानव की मूर्खता का एक अद्भुत प्रमाण है ।
ABODE के मायने हैं शरण । हमारे लिए हमारी प्राकृतिक, आध्यात्मिक और सांस्कृतिक विरासत ही शरण है और THE ABODE School of Dreams उसी विरासत की तरफ फिर लौट चलने का एक पुनीत प्रयास । आधुनिक शिक्षा को आवश्यकता है कि वह फिर से पुरातन भारतीय शिक्षा प्रणाली की शरण में आये जिसने विश्व को वैशाली, तक्षशिला, नालन्दा जैसे उच्चतम आदर्श दिए ।
आइये, भारत को फिर से विश्व-गुरु बनायें । अपने बच्चों के अंतर्मन में मानवता के उच्च आदर्श बोकर, उन्हें सँवारकर पुरातन संस्कृति को पुनः जीवित करें और एक ऐसा पुरातन भविष्य फिर खड़ा करें जहाँ हमारे बच्चे अपनी तुलना सिर्फ स्वयं से करें और बाकी सभी से प्रेम ।
“शक्ति के विद्युत्कण सब व्यस्त, विकल बिखरे हों हो निरुपाय
समन्वय उनका करे समस्त, विजयिनी मानवता हो जाये ।।”
- जयशंकर प्रसाद
- मुकेश जैन
Visionary & Founder
THE ABODE School of Dreams